365 दिन, 365 भावनाएँ: बख्शी जी के गीतों से प्रेरित मेरा आत्म-लेखन
मुझे बचपन से ही अपने माता-पिता ने रामचरितमानस का एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक माहौल दिया। हमारे घर में हर सुबह भजन, रामायण के पाठ और तुलसीदास जी के दोहे गूंजते थे। यही वातावरण मेरी आत्मा की बुनियाद बना। लेकिन इस आत्मिक विरासत के साथ-साथ जो दूसरी सबसे बड़ी पूंजी मुझे मिली, वह थी — संगीत की साधना। और इस संगीत को एक दिशा देने वाले व्यक्ति थे शब्दों के जादूगर — आनंद बख्शी जी।
उनके गीत सिर्फ़ कानों में नहीं उतरते थे, बल्कि मन, आत्मा और जीवन में उतर जाते थे। “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा नहीं”, “मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू”, “जिंदगी एक सफर है सुहाना” — ऐसे सैकड़ों गीतों ने मेरे विचारों की नींव रखी। आनंद बख्शी जी की लेखनी ने मुझे एहसास कराया कि गीत महज़ मनोरंजन नहीं होते — वे जीवन के दर्पण होते हैं, रूह की आवाज़ होते हैं।
मैंने अपनी रोज़मर्रा की सोच, भावनाएँ और प्रेरणाएँ एक डायरी में लिखनी शुरू की — हर दिन एक पन्ना, हर पन्ने पर आत्मा की पुकार। जब यह डायरी 365 पन्नों की संकलित यात्रा बन गई, तब मैंने इसे श्रद्धेय राकेश बख्शी जी को भेजा। उन्होंने मेरी इस भावनात्मक धरोहर को एक किताब का रूप दिया और Advik Publications के माध्यम से प्रकाशित भी करवाया।
यह किताब सिर्फ़ पन्नों का मेल नहीं है, यह मेरी आत्मा का एक समर्पण है — संगीत को, मेरे संस्कारों को, और सबसे बढ़कर आनंद बख्शी जी की विरासत को। यह मेरी छोटी सी कोशिश है उस महान शख्सियत को नमन करने की, जिनकी लेखनी ने मुझे शब्दों से प्रेम करना सिखाया।
यह सफ़र अभी जारी है — और मुझे यकीन है कि अभी मुझे और बहुत दूर जाना है… क्योंकि अभी तो बस शुरुआत है, अभी तो आसमान छूना बाकी है।