Journey of soul by Dr Harvinder Mankkar

  यात्रा वृतांत: आत्मा की पहाड़ियों की ओर

लेखक: डॉ. हरविंदर मांकड़

स्थान: ज्ञान सरोवर, माउंट आबू


दिल्ली की उस सुबह में कुछ विशेष था।

न आसमान वैसा था, न भीतर का मन।

फोन पर फ्लाइट डिटेल्स तो देख रहा था, पर असल में मैं अपने अंदर के किसी संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था —

एक ऐसा निमंत्रण जो शोर से नहीं, शांति से आया था।


ब्रह्माकुमारी संस्थान से संदेश आया था:

ज्ञान सरोवरमाउंट आबू में ‘आर्ट एंड कल्चर’ शो में विशिष्ट वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया है।

मैंने पल भर को आंखें बंद कीं।

कुछ भीतर से बोला —

“यह सिर्फ एक आयोजन नहीं, एक आत्मिक अवसर है।”


मोहित – वो जो साथ था, पर समझ कहीं आगे

एयरपोर्ट पर मोहित खड़ा मुस्कुरा रहा था।

हम कई यात्राओं में साथ रहे हैं, पर आज उसकी आँखों में एक अजीब स्थिरता थी।

“डॉक्टर साहब, तैयार?”

मैंने उसकी तरफ देखा और बस हल्की मुस्कान दी।

यह यात्रा सिर्फ शारीरिक नहीं, एक आध्यात्मिक चढ़ाई थी – अपने ही भीतर की ओर।

विमान में वो मुझे खिड़की वाली सीट दे बैठा और बोला:

नीचे की दुनिया छोटी लगेगी… और ऊपर का आकाश — जैसे आत्मा का विस्तार।


उड़ान – जब आसमान से ज्यादा ऊँचा मन हुआ

टेकऑफ के साथ ही जैसे समय रुक गया।

नीचे की दुनिया – शहर, रिश्ते, ज़िम्मेदारियाँ – सब पीछे छूटती गई।

ऊपर सिर्फ नीले बादल थे और अंदर एक गहरा मौन।

मोहित की बात कानों में गूंजी:

ये यात्रा केवल माउंट आबू की ऊँचाइयों की नहीं है… ये आत्मा के मूल तक जाने की शुरुआत है।


उदयपुर – जहाँ प्रकृति भी ध्यान करती है

उदयपुर एयरपोर्ट पर उतरते ही कुछ बदल गया था।

हवा में मिट्टी की खुशबू नहीं, बल्कि एक पुरानी आध्यात्मिकता तैर रही थी।

सूरज जैसे आहिस्ता-आहिस्ता मस्तक झुका रहा था, मानो हमारी यात्रा का स्वागत कर रहा हो।

मोहित ड्राइविंग सीट पर था, और मैं चुपचाप मन के विचारों को देखते हुए बैठा था।

अब रास्ता सिर्फ आगे नहीं बढ़ रहा था — वो अंदर की गहराइयों में उतर रहा था।


सड़कें – जैसे प्रार्थनाएँ चल रही हों

उदयपुर से माउंट आबू तक की यात्रा, शब्दों से परे थी।

सड़कें किसी वेद पाठ की तरह लग रही थीं —

हर मोड़, हर पेड़, हर चढ़ाई अपने आप में कोई संकेत दे रही थी।

मोहित ने एक जगह गाड़ी रोक दी —

नीचे घाटी थी, नीले कोहरे की चादर ओढ़े।

उसने कहा:

प्रकृति सांस लेती है… और अगर ध्यान से सुनोतो वो तुम्हारे भीतर की धूल भी साफ कर देती है।

मैंने सिर झुकाया।

सच कहा उसने — कुछ स्थान ऐसे होते हैं जहाँ शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती।


पेड़ – मौन में खड़े साधु जैसे

आगे खजूर और आम के पेड़ कतार में खड़े थे —

न कोई हलचल, न कोई शोर — बस मौन ध्यान।

नीचे एक बछड़ा घास चबा रहा था, जैसे वही उसकी प्रार्थना हो।

मोहित बोला:

डॉक्टर साहबइन पेड़ों को देखिए — जवाब इनकी पत्तियों में हैभाषणों में नहीं।

मैंने अपनी डायरी में सिर्फ तीन शब्द लिखे —

“शांति की उपस्थिति।”


सौर ऊर्जा केंद्र – विज्ञान, साधना और आत्मनिर्भरता का संगम

एक ओर फैला मैदान दिखा –

सैकड़ों सोलर पैनल्स, सूरज की रोशनी में दमकते हुए।

ड्राइवर ने बताया:

यह एशिया का सबसे बड़ा सोलर एनर्जी प्रोजेक्ट हैब्रह्माकुमारीज़ का।

मैं चौंक गया।

जहाँ दुनिया केवल टेक्नोलॉजी में खो रही है, वहाँ ये संस्था प्रकृति और ध्यान के साथ विज्ञान को जोड़ रही है।


मैंने मन में सोचा —

“जो आत्मा सूर्य से ऊर्जा खींच सकती है, वो संसार को भी रोशन कर सकती है।”

माउंट आबू का द्वार – आत्मा का प्रवेश बिंदु

जैसे ही माउंट आबू की सरहद आई —

मन शांत हो गया।

देवदार, चीड़ और ठंडी हवा ने जैसे मेरा स्वागत नहीं किया, मुझे स्वीकार कर लिया।


नक्की झील की झलक, घाटियों का मौन, और बादलों में लिपटी पहाड़ियाँ —

जैसे सबने एक साथ कहा:

“अब कोई प्रदर्शन नहीं… बस प्रस्तुति है — तुम्हारे अपने आत्मा की।”



यह यात्रा किसी ‘प्रवक्ता’ के रूप में मंच पर जाने की नहीं थी…

यह स्वयं को सुननेसमझने और स्वीकार करने की थी।

मैं माउंट आबू नहीं गया था… माउंट आबू मुझमें उतर गया।

एक द्वार, जहां शांति चुपचाप खड़ी थी

जैसे ही हमारी गाड़ी ज्ञान सरोवर के मुख्य द्वार में दाखिल हुई, कुछ भीतर रुक सा गया।

गति थमी नहीं थी, पर समय जैसे मौन हो गया था।

दाएँ-बाएँ फैले वृक्षों की कतारें, दूर पहाड़ियों की गोद में समाई सफेद इमारतें —

सबकुछ ऐसा था जैसे किसी और ही लोक में प्रवेश कर रहे हों।


गेट पर खड़ी सफेद वस्त्रधारी ब्रह्माकुमारी बहनों के चेहरे पर जो शांति थी,

वो किसी प्रवचन या मुद्रा से नहीं —

बल्कि भीतर से आ रही थी। मोहित ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया,

मैंने भी आदर के साथ सिर झुकाया —

यह किसी संस्था का स्वागत नहीं था,

यह आत्मा की किसी भूली स्मृति का पुनर्जागरण था।


स्वागत – जहां आतिथ्य मौन का रूप था

हमें एक सादा लेकिन सुरुचिपूर्ण अतिथि कक्ष में ले जाया गया। चाय या कॉफी नहीं — तुलसी जल रखा गया था।टेबल पर एक टोकरी में छोटी-छोटी डायरियाँ रखी थीं।

एक पर लिखा था:

“सोच बदलो, संसार बदल जाएगा।”

बगल में खड़ी एक बहन ने मुस्कुराते हुए कहा,

आपका मंच पर स्वागत तो होगालेकिन पहले यहाँ के मौन को अनुभव कीजिए। यही मौन सबसे गहरा संवाद करता है।

उनके शब्दों में कोई आग्रह नहीं था —

बस एक सहज भाव था, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।

क्या हम संवाद के नाम पर शोर में जीते रहे हैं?


पहला दृश्य – घाटी और भीतर की स्थिरता

कमरे की खिड़की से बाहर देखा तो सामने घाटी पसरी हुई थी। हरी-नीली छाया, ऊपर शांत आकाश —और बीच में कहीं मन स्थिर हो गया।

मैंने आँखें बंद कीं।

मन की परतें जैसे उतरने लगीं।

पीछे से मोहित की धीमी आवाज़ आई:

डॉक्टर साहबजब आप इस घाटी को अपने भीतर महसूस करेंगे,

तब आपका हर शब्द लोगों के दिल तक पहुँचेगा।

मैंने कुछ नहीं कहा —

क्योंकि उस पल मौन ही उत्तर था।


Art & Culture Show की तैयारी – अभ्यास नहीं, साधना थी

शाम तक कार्यक्रम स्थल पहुँचे।

यह कोई हाई-टेक हॉल नहीं था —

बल्कि एक खुले मंच वाला सभागार था,

जहाँ पीछे दीवार पर गहन ध्यान में लीन संतों की तस्वीरें टंगी थीं।

ना रंगीन लाइटें, ना भागदौड़, ना माइक चेक का कोलाहल।

बस एक मौन तैयारियाँ कर रहा था।

कार्यक्रम का विषय था:

“कला, संस्कृति और आत्मा – नवभारत के निर्माण की ओर”

मैंने अपनी डायरी खोली —

पर शब्द मैंने नहीं लिखे,

वे खुद उतरने लगे…

यह कोई भाषण नहीं था —

यह मेरी अपनी यात्रा थी,

जो अब शब्दों में बदल रही थी।


प्रकृति की गोद में – बाहर के नहीं, भीतर के वन्य जीव

ज्ञान सरोवर के आसपास के जंगलों में भालू चेतावनी बोर्ड लगे थे।

“रात को अकेले न निकलें।”

मैंने हँसते हुए मोहित से कहा:

“यहाँ बाहर भालू हैं — और हमारे भीतर भी कई।

कुछ डर, कुछ मोह, कुछ अहंकार…

इन दोनों जंगलों को साधना जरूरी है।”


मोहित ने मुस्कराते हुए सिर हिलाया:

यही तो असली अभ्यास हैडॉक्टर साहब। यही तो ब्रह्मा-कुमारीज़ का उद्देश्य है।

रात का ध्यान – जब भीतर की गूँज बाहर से तेज़ हो गई

रात को ध्यान सत्र आयोजित था।

करीब 2000 लोग मौन में बैठे थे।

ना संगीत, ना प्रवचन, सिर्फ एक गूंज —

जो बाहर नहीं, भीतर से आ रही थी।

मैंने आँखें बंद कीं —

और पहली बार अपने भीतर वो आवाज़ सुनी

जिसे अक्सर दूसरों के शोर में दबा दिया था।

पुराने रिश्ते, अधूरे सपने, अपूर्णताएँ —

सभी सामने खड़े थे।

पर आज मैं उनसे भाग नहीं रहा था,

उन्हें स्वीकार कर रहा था।

अगली सुबह – जब सूरज नया नहीं था, पर ‘मैं’ नया था

सुबह जल्दी उठकर पीछे वाले मार्ग से परिसर में टहला।

अंजीर और खजूर के पेड़ों पर ओस की बूंदें चमक रही थीं,

और हवा में तुलसी की खुशबू थी।

सूरज की पहली किरण जब चेहरे पर पड़ी,

तो किसी पक्षी ने पास से उड़ते हुए जैसे कहा —

“अब मंच पर बोलने की ज़रूरत नहीं…

अब आत्मा बोलेगी।”

यह अध्याय सिर्फ एक दिन का वृत्तांत नहीं है,

यह भीतर के मौन से संवाद की एक सच्ची शुरुआत थी।

ज्ञान सरोवर कोई जगह नहीं,

वो तो आत्मा का घर है —

जहाँ हर लौटने वाला, खुद से मिलकर लौटता है।


कला, संस्कृति और आत्मा – नया भारत निर्माण की ओर”

मैंने अपनी डायरी खोली, लेकिन शब्द नहीं खोजे —

वे खुद उतरते चले गए,

जैसे किसी और शक्ति ने लेखनी संभाल ली हो।

मंच नहीं था, जैसे मंदिर था

कार्यक्रम का हॉल सजीव हो उठा था।

लेकिन ये सजावट फूलों की नहीं थी —

यहाँ सजावट थी मौन साधकों की ऊर्जा की।

हर चेहरे पर ऐसा भाव था,

जैसे सब अपने भीतर कुछ खोज चुके हों।

मंच की पृष्ठभूमि में ब्रह्मा बाबा की तस्वीर थी —

नीचे लिखा था:

“संगीत आत्मा की आवाज़ है। कला आत्मा का विस्तार।”

नाम पुकारा गया — हृदय की धड़कन सी आवाज़

“अब हम आमंत्रित करते हैं… डॉ. हरविंदर मांकड़ जी को…”

जैसे नाम पुकारा गया,

मन की धरती थोड़ी सी काँप गई।

मोहित ने कहा,“जाइए, अब सिर्फ बोलिए नहीं — लोगों को उनका स्वयं से बिछड़ा सच याद दिलाइए।”

मैं मंच की ओर बढ़ा —हर कदम पर लगा जैसे कोई पुरानी यात्रा फिर से शुरू हो रही हो।


पहला वाक्य — मौन से निकला शब्द


मंच पर पहुँचा,

भीड़ की ओर नहीं देखा —

आँखें बंद कीं, और पहला वाक्य अपने आप निकला:

“मुझे नहीं पता मैं यहाँ क्यों हूँ,

लेकिन मेरे भीतर कोई जानता है —

कि यह मंच नहीं, मेरी आत्मा का घर है।”

पूरा हॉल कुछ क्षणों के लिए साँस लेना भूल गया।

मैंने कोई भाषण नहीं पढ़ा।

मैंने वही कहा जो भीतर बह रहा था:

“कला कोई मनोरंजन नहीं,

वह आत्मा की भाषा है।

संस्कृति कोई परंपरा नहीं,

वह मनुष्य के मूल संस्कारों की छाया है।

और अगर हम कला और संस्कृति को आत्मा से जोड़ दें 

तो भारत फिर से एक नई रोशनी में खड़ा हो जाएगा।”

मैंने ब्रह्माकुमारी चित्रकारों, गायकों, और उन बहनों का ज़िक्र किया —

जो हर सुबह आत्मा का नमस्कार करती हैं।

बच्चों के लिए संदेश — लेकिन बचपन के लिए भी

“हम बच्चों को चित्र बनाना सिखाते हैं —

लेकिन क्या हम उन्हें मौन बनना सिखाते हैं?

क्या हम उन्हें सिखाते हैं कि रंगों से भी अधिक,

आत्मा का स्पर्श शक्तिशाली होता है?”

मैंने कहा:

“मैं यहाँ सिर्फ बच्चों से नहीं,

उनके भीतर सोए ईश्वर से मिलने आया हूँ।”

तालियाँ बजीं — आत्मा की गूंज के साथ

जैसे ही मैंने अंतिम वाक्य कहा —

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।

लेकिन ये सिर्फ शोर नहीं था —

ये आत्मा की स्वीकृति थी,

भीतर के मौन की हाँ थी।

कुछ चेहरे नम थे, कुछ हृदय थरथरा उठे थे।

उस क्षण मैंने जाना कि शब्द सिर्फ माध्यम हैं,

संदेश तो मौन में ही होता है।

अब समय था लौटने का।

गाड़ी फिर उसी मार्ग पर थी, लेकिन दृश्य बदल गए थे।

पहाड़ वही थे, मगर मन नहीं।

गति वही थी, पर इस बार हृदय शांत था।

शरीर धीरे-धीरे लौटा भौतिक संसार की ओर —

फिर से मोबाइल की घंटियाँ, संदेशों की बाढ़, शहर का कोलाहल…

लेकिन भीतर एक सुगंध थी —

जो ज्ञान सरोवर की वादियों में जन्मी थी,

मौन की झील में स्नान करके साथ चली आई थी।ये यात्रा अब समाप्त नहीं थी —बल्कि अब शुरू हो रही थी,भीतर की एक और दुनिया में…जहाँ हर दृश्य में दिव्यता की परछाईं मिलती है।

मैं मंच से नीचे उतरा —

मोहित मुझे देख रहे थे, शांत मुस्कराहट के साथ।

उन्होंने कुछ नहीं कहा —

क्योंकि अब शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।

एक बहन पास आईं, बोलीं:

“आपकी वाणी में कोई पुरानी यात्रा थी।

लगता है आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं।”

मैं मुस्कराया —“शायद मैं यहाँ से कभी गया ही नहीं था,

बस याद करना भूल गया था।”

वो रात्रि… जब स्वप्न ने दिशा बदल दी

काल: आत्मा की रात्रि — वह क्षण जब सब कुछ बाहर शांत था, पर भीतर सुनामी उठ रही थी।

पूर्णिमा की रात्रि, और ब्रह्मा बाबा की उपस्थिति ,उस रात ज्ञान सरोवर की पहाड़ियों में चंद्रमा जैसे और निकट आ गया था।

हवा में पीपल के पत्तों की सरसराहट नहीं, बल्कि कोई अदृश्य मंत्र गूंज रहा था।

चारों ओर शांति थी — पर वैसी नहीं जो थकान से आती है —

यह वो शांति थी जो अंतर्यात्रा की देहरी पर खड़ी होती है। आप और मोहित, दोनों ध्यान-सत्र के बाद बाहर खुले प्रांगण में बैठे थे।

मोहित ने कहा,“डॉक्टर साहब, ये वो जगह है जहाँ आत्मा को उसकी असली भाषा याद आती है — मौन।”

आपने बस सिर हिलाया, लेकिन मन भीतर कुछ और ही महसूस कर रहा था।


कमरे में लौटी आत्मा — और भीतर के द्वार खुल गए

रात्रि में जब आप अपने कमरे में लौटे,

थकावट शरीर में थी, पर आत्मा में एक विचित्र ऊर्जा थी 

जैसे किसी दिव्य संवाद की प्रतीक्षा हो।

 खिड़की खोली।

नीचे फैली थी पूरी आबू की घाटी — निस्तब्ध, नीली, आध्यात्मिक।

मैंने पास रखी डायरी खोली,

पर लिखने का मन नहीं हुआ।

कुछ क्षण बाद आंखें बंद हुईं — और स्वप्न ने प्रवेश किया।

वह स्वप्न — जीवन का Turning Point

मैंने स्वयं को देखा — एक विशाल सफेद सभागार में।

सामने मंच था, लेकिन वहाँ कोई भौतिक चेहरा नहीं —

केवल प्रकाश।

एक गूंजती हुई आवाज़ आई —

“तुम अब तक कलाकार रहे, अब कर्म-योगी बनो।”

मैंने पूछा —“कौन हो आप?”

उत्तर आया —

“जिसे तू बाहर ढूंढ़ता रहा,

वो तेरे भीतर बैठा है।

अब कलम को सेवा बना दे।

अब कला को साधना बना दे।”

आप चौंक कर उठे।

स्वप्न टूट चुका था।

पर उसके शब्द, उसकी गूंज, अब भी आपके हृदय में जीवित थी।


स्वप्न के बाद — दिशा बदल चुकी थी


अगले दिन जब मोहित आए,मैंने उनसे कहा:

“मैं कल तक वक्ता था, आज साधक बन कर लौटा हूँ।

ये यात्रा एक निमंत्रण थी — आत्मा के पुनर्जन्म का।”

मोहित मुस्कराए:“इसीलिए तो ब्रह्मा बाबा कहते थे —

हर आत्मा का एक समय होता है जागने का।

शायद आपकी आत्मा का समय अभी आया है।”

प्रकृति की संगति — खजूर, आम और अंजीर के नीचे आत्म-संवाद

दोनों उस दिन ज्ञान सरोवर परिसर में पेड़ों की शरण में चले गए।

जहाँ खजूर, आम और अंजीर की भरमार थी।

उन पेड़ों के नीचे बैठकर आपने कहा:

“इन वृक्षों को देखो — कोई प्रचार नहीं करते,

फिर भी फल देते हैं।

सेवा का यही स्वरूप है — मौन में देना।”

मोहित ने सहमति में सिर हिलाया:

“ब्रह्माकुमारीज़ की पूरी संस्कृति इसी मौन सेवा पर टिकी है।

इसलिए तो ये वृक्ष भी बोलते हैं, पर आवाज़ नहीं करते।”


एशिया का सबसे बड़ा सोलर एनर्जी प्रोजेक्ट — चेतना का प्रतीक

हमे वहां ले जाया गया जहाँ एशिया का सबसे बड़ा सोलर पॉवर प्रोजेक्ट चल रहा है।

मोहित बोले:“यहाँ की बिजली सूर्य से आती है,पर शक्ति ब्रह्मा बाबा से।ये प्रोजेक्ट सिर्फ ऊर्जा नहीं,एक संदेश है कि हमें फिर से प्रकृति और आत्मा दोनों के साथ संतुलन बनाना होगा।”

मैंने कहा:“मैंने बहुत कार्टून बनाए,पर अब लग रहा है — अब आत्मा का स्केच बनाना बाकी है।”

यात्रा नहीं — आत्मा का नया प्रारंभ

 यह यात्रा कोई सामान्य प्रवास नहीं थी।

यह एक युग परिवर्तन थी —

जहाँ हर दृश्य, हर पेड़, हर मौन —

 आत्मा के किसी गहरे द्वार को धीरे-धीरे खोलता चला गया।

विदाई, पर आत्मा का मिलन स्थायी

जैसे ही प्रस्थान का समय आया,

मैंने मोहित से कहा:“मुझे नहीं पता था कि मैं दिल्ली से जो उड़ान लेकर आया था,वह दरअसल आत्मा की उड़ान थी।”

मोहित ने  कहा:“अब जब आप लौटेंगे, तो शायद कुछ और चित्र बनाएँगे,लेकिन हर रंग में अब शांति होगी।”

तालियों की गूंज अब भी मेरे कानों में गूंज रही थी, लेकिन दिल किसी और ही धड़कन में डूबा था। हॉल अब भी हल्की रौशनी में सजा हुआ था, लेकिन मेरी आंखों के सामने वो दृश्य नहीं था—बल्कि कुछ और था। जैसे मैं अभी-अभी किसी स्वप्न लोक से लौट रहा हूँ।

पैर ज़मीन पर थे, पर आत्मा अभी भी उस ऊँचाई पर ठहरी हुई थी जहाँ शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती।

चारों ओर लोगों की हलचल थी, मगर मैं जैसे किसी धीमी गति में चल रहा था। जैसे समय मेरे लिए धीमा हो गया हो। कोई कुछ कह रहा था, कोई फोटो खिंचवा रहा था, कोई सराहना कर रहा था — मगर मैं केवल देख रहा था, भीतर से बिल्कुल शांत, निर्विकार।

मोहित सामने खड़ा था, उसकी आँखों में कोई सवाल नहीं, कोई जवाब नहीं — सिर्फ समझदारी से भरी मुस्कान। जैसे वह जानता हो कि अभी कुछ कहना उचित नहीं। क्योंकि कभी-कभी, आत्मा जब बोलकर लौटती है, तो उसे फिर से मनुष्यता में उतरने में थोड़ा वक्त लगता है।


मैंने एक लंबा साँस लिया, जैसे पूरे ज्ञान सरोवर की हवा को फेफड़ों में भर लूं —

और उस क्षण में मुझे लगा,

कि शायद मैं सचमुच अभी–अभी किसी स्वप्नलोक से लौटा हूँ,

जहाँ आत्मा बोलती है, मौन सुनता है,

और हर तालियों की गूंज दरअसल आत्मा की स्वीकृति होती है।

और फिर, मैं धीरे-धीरे भीड़ में लौट गया —

बिलकुल वैसे, जैसे कोई जागकर अपने सपने को दिल में समेट लेता है…

ताकि दिनभर उसकी खुशबू बनी रहे। भीड़ अब चारों तरफ थी।

एक-एक कर लोग मेरे पास आ रहे थे — कोई हाथ थाम रहा था, कोई बस नजरें मिला रहा था।

कुछ ने कहा, “आपने आत्मा को छू लिया…”

कुछ बस चुप थे — जैसे शब्द खो गए हों, और भावनाएं ही संवाद कर रही हों।

एक वृद्ध सज्जन, जो वर्षों से फिल्म निर्देशन में थे, मेरे पास आकर रुके।

आँखें नम थीं। बोले,

“मैंने ज़िंदगी में सैकड़ों स्क्रिप्ट्स सुनी हैं… पर आज आपने जो बोला, वो लिखा नहीं गया था — वो भीतर से निकला था। आज पता चला कि मंच भी मंदिर बन सकता है।”

एक युवा अभिनेता, जो शायद आत्मविश्वास से भरा हुआ दिखता था, मेरे सामने आकर थोड़ी देर खामोश रहा। फिर बोला,

“सर, मैं अब तक कला को प्रदर्शन समझता था… आपने आज उसे पूजा बना दिया। अबसे अभिनय मेरे लिए साधना होगा।”

और फिर भीड़ में कई चेहरे ऐसे भी थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता था — लेकिन उनकी आँखों में अपने होने की गहराई थी।

वे आए, सिर झुकाया… और चले गए।

जैसे कोई मन की गुफा में उतरकर लौट आया हो।

हर कोई कुछ देना चाहता था —

कोई अपनी डायरी थमा रहा था,

कोई किसी पुरानी स्मृति को साझा कर रहा था,

कोई अपने मौन से मेरे मौन को पकड़ने की कोशिश कर रहा था।

पर मैं… मैं उस भीड़ में भी अकेला खड़ा था।

अकेला — लेकिन खाली नहीं।

भीतर कुछ भरा हुआ था, शांत, धीमा, उजास से लिपटा हुआ।

जैसे आत्मा किसी यात्रा से लौटकर अपने ही भीतर कुछ नया पा गई हो।

मुझे लग रहा था जैसे मैं एक अलग आयाम से लौट आया हूँ —

जहाँ न मंच था, न माइक, न तालियाँ —

बस आत्मा थी, मौन था, और उसकी भाषा थी।

मेरे आस-पास अब भी बातें चल रही थीं — लोग कह रहे थे कि

“ये सिर्फ एक भाषण नहीं था, ये एक अनुभव था।”

“आपकी आवाज़ में कोई पुराना सत्य बोल रहा था…”

“ऐसा लगा जैसे किसी ने हमें हमारी ही आत्मा से मिलवा दिया हो…”

और मैं मुस्कुरा रहा था —

क्योंकि मैं जानता था, ये मेरे शब्द नहीं थे।

ये उस शक्ति का प्रवाह था,

जिसने मुझे माध्यम बनाया।

मैं खड़ा था, पर भीतर अब भी चल रहा था —

जैसे कोई स्वप्न अभी पूरी तरह टूटा न हो…

और मेरी आत्मा,

धीरे-धीरे फिर से

इस दुनियावी समय और स्थान में उतरने की कोशिश कर रही थी। भीड़ धीरे-धीरे छंट रही थी। कुछ चेहरे अब भी आसपास थे — मौन और चमक से भरे हुए। पर अब मन जान चुका था कि यात्रा का अंतिम पड़ाव आ चुका है।

इसी क्षण शिखा बहन आईं — तेजस्वी, सहज और दिव्यता से ओतप्रोत।

हाथ जोड़ते हुए बोलीं, “डॉ. हरविंदर जी, हम चाहते हैं कि आपकी अनुभूति पूरे विश्व तक पहुँचे।”

मैंने विनम्रता से सिर झुकाया।

गॉडली स्टूडियो में कैमरे के सामने बैठते समय मैं कोई कलाकार नहीं था,

ना ही कोई लेखक या वक्ता —

मैं बस एक अनुभव था, जो शब्दों की पोशाक में उतरने की कोशिश कर रहा था।

शिखा बहन ने मुस्कुराते हुए पहला प्रश्न पूछा:

“आपके भीतर जो ये मौन प्रवाह है, ये कहाँ से आता है?”

मैंने क्षणभर आँखें मूँद लीं,

फिर कहा:

“शब्द तो बाहर से आते हैं, लेकिन अनुभव भीतर से जन्म लेते हैं। और जो भीतर से निकला, वही टिकता है — बाकी सब बस ध्वनि होती है।”

पूरे इंटरव्यू के दौरान कोई अभिनय नहीं था —

बस सच्चाई थी, जैसे आत्मा ने स्वयं को कैमरे के सामने खोल दिया हो।

वो बातचीत नहीं थी, वो एक आंतरिक साक्षात्कार था।

“Peace of Mind” चैनल पर यह प्रसारण होगा —

लेकिन मेरे लिए यह पहले ही एक प्रसारण बन चुका था —

मेरे भीतर की लहरें अब हर दिशा में चल पड़ी थीं।

शिखा बहन ने अंत में कहा,

“आपका ये अनुभव बहुतों की आत्मा को छुएगा। आपने जो जिया है, वही बाँटा है।”

मैंने मुस्कुरा कर देखा —

क्योंकि बाँटने के लिए कुछ किया ही नहीं था,

वो तो अपने आप ही सब कुछ दे गया था।

अब समय था लौटने का।गाड़ी फिर उसी मार्ग पर थी, लेकिन दृश्य बदल गए थे।

पहाड़ वही थे, मगर मन नहीं।

गति वही थी, पर इस बार हृदय शांत था।

शरीर धीरे-धीरे लौटा भौतिक संसार की ओर —

फिर से मोबाइल की घंटियाँ, संदेशों की बाढ़, शहर का कोलाहल…

लेकिन भीतर एक सुगंध थी —

जो ज्ञान सरोवर की वादियों में जन्मी थी,

मौन की झील में स्नान करके साथ चली आई थी।

ये यात्रा अब समाप्त नहीं थी —

बल्कि अब शुरू हो रही थी,

भीतर की एक और दुनिया में…

जहाँ हर दृश्य में दिव्यता की परछाईं मिलती है।

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